फाइलों में फंसा जंगल… नाकेदार की कुर्सी से उठते सवाल…
8 नवम्बर 2025
झाबुआ
झाबुआ। झाबुआ के जंगल अब भी साँस ले रहे हैं… मगर उन साँसों में अब सवाल घुल चुके हैं… क्या अब जंगलों की रखवाली कागजाें से होगी… या कर्म से…?
कहानी उस नाकेदार की है… जो जंगल की मिट्टी छोड़ चुका है… और दफ्तर की टेबल का हिस्सा बन चुका है… वर्षों से वही चेहरा… वही कुर्सी… वही कमरा… बस पहचान बदल गई है… अब वह “नाकेदार” नहीं… “बाबू” कहलाता है…
पेड़ों की पत्तियाँ गिरती रहीं… फाइलों के पन्ने पलटते रहे… और समय के साथ जंगल की पहरेदारी… कागजाें के पहरे में तब्दील हो गई…
कर्तव्य की जगह… आराम का साम्राज्य…
सरकारी आदेश कहते हैं… नाकेदार रोज बीट का निरीक्षण करेगा… अवैध कटाई पर नज़र रखेगा… हर गतिविधि का ब्यौरा डायरी में दर्ज करेगा…
पर यहाँ तो कहानी उलटी है… जिसे जंगल में रहना था… वह अब एसी कमरे में बैठकर... हरियाली का हिसाब रखता है… बीट की जमीन पर उसका अता-पता नहीं… पर हाजिरी रजिस्टर में नाम सदा उपस्थित…
यह कैसे संभव है…?
कौन-सी ऐसी मेहरबानी या जादूगरी है… जिसने एक फील्ड ड्यूटी वाले कर्मचारी को… ऑफिस का स्थायी निवासी बना दिया…?
कार्यकाल की जांच… ही सच उजागर करेगी…
अब यह मामला सिर्फ एक पद का नहीं… पूरे विभाग की नैतिक परीक्षा है… जरूरत है… एक निष्पक्ष जांच की… क्योंकि इस नाकेदार के कार्यकाल में… ऐसे अनेक प्रश्न हैं… जो अब तक दबा दिए गए हैं…
क्या इसने बीते वर्षों में बीट निरीक्षण की कोई रिपोर्ट दी…? क्या इसकी बीट डायरी में हालिया प्रविष्टियाँ हैं… या खाली पन्ने ही उसका बयान हैं…? क्या किसी अधिकारी ने… इसे लगातार दफ्तर में टिके रहने की अनुमति दी…? या यह स्थानांतरण नियमों से परे… संबंधों की छाया में हुआ…?
अगर ये परतें खुलीं… तो फाइलों की धूल से ऐसे नाम निकलेंगे… जो व्यवस्था के भीतर बैठे… मौन संरक्षक हैं…
कुर्सी की जड़ें… जंगल की जड़ों से गहरी…
झाबुआ का वन विभाग अब जंगल नहीं… बल्कि कुर्सियों का वन बन चुका है… जहाँ जिम्मेदारी की जड़ें सूख रही हैं… और सुविधा की बेलें… तेजी से फैल रही हैं…
एक पद पर वर्षों तक टिके रहना… अब ईमानदारी का नहीं… असर का प्रमाण बन गया है… फाइलें बोलती नहीं… पर सब जानती हैं… कौन… कब… और किसके सहारे बैठा है…
यह फाइल नहीं… फेवर का दस्तावेज है…
यह बाबूगिरी कोई साधारण समायोजन नहीं… बल्कि “सिस्टम की सजग साजिश” है… जहाँ आदेश ऊपर से आते हैं… और नीचे पहुँचते-पहुँचते… फेवर बन जाते हैं…
सूत्र कहते हैं…
यह खेल “पद संरक्षण” का नहीं… बल्कि “संबंध विस्तार” का है… जहाँ एक सिफारिश… सब नियमों पर भारी पड़ जाती है…
अब वक्त है… राख हटाने का…
यह रिपोर्ट कोई सनसनी नहीं… यह जंगलों की खामोशी का अनुवाद है… क्योंकि अगर फील्ड स्टाफ कुर्सी से बंधा रहेगा… तो पेड़ और जानवर… किसके भरोसे रहेंगे…?
अब समय है… विभाग जागे… एक निष्पक्ष जांच टीम बने… जो कार्यकाल… हाजिरी रजिस्टर… बीट डायरी… और विभागीय आदेशों की लकीरों में छिपे सच को उजागर करे…
अगले एपिसोड में… नाम… पद… और प्रमाण…
“राख के नीचे आग” अब रूपक नहीं रहा… यह सच्चाई की दस्तक बन चुका है… अगले भाग में होंगे - नाम… कार्यकाल… दस्तावेज़… और वे हस्ताक्षर… जो इस जंगल से कुर्सी तक की यात्रा के साक्षी हैं…
अब प्रश्न यह नहीं कि नाकेदार कैसे बाबू बना… प्रश्न यह है… कितनों की नाकेदारी अब कुर्सियों के हवाले है…?





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