समाज बोर्ड... राजनीति की उपज या समाज की उपेक्षा...? दो साल में एक रुपया नहीं, एक बैठक नहीं... फिर ये समाज के बोर्ड बने ही क्यों...?
07 दिसंबर 2025
इंदाैर
विश्वकर्मा, कुशवाह, साेनी, साहू, मीना, जाट, क्षत्रिय, सिंधी, रजक, गुर्जर, जैन, ब्राह्मण, यादव, महाराणा प्रताप जैसे कल्याण बोर्ड... नाम इतने कि लगे समाज जागरण का महायज्ञ शुरू हो गया हो... लेकिन काम इतने... कि दो साल में एक बैठक भी न हुई...
सभी समाज के हिताें की बात होती रही और समाजाें के बोर्ड कागज पर ही सांसें लेते रहे और फिर मौन में समाप्त हो गए...
✍️ ऋतिक विश्वकर्मा
मध्य प्रदेश में समाजों के उत्थान, युवाओं के कौशल विकास और सामूहिक प्रगति की घनघोर बातें करते हुए सरकार ने अक्टूबर 2023 में एक साथ 9 समाज बोर्ड बना दिए थे। घोषणा इतनी जोरदार कि लगा मानो अब समाजों की दशा-दिशा दोनों बदलेगी। लेकिन दो वर्षों की यात्रा में जो तथ्य सामने आए हैं, वे इस पूरे तंत्र की नीयत और नीतियों पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं...
सबसे चौंकाने वाली बात यह कि इन समाज बोर्डों को दो साल में सरकार ने एक रुपया तक नहीं दिया। सिर्फ राशि ही नहीं, स्थिति यह रही कि एक भी बोर्ड अपनी पहली बैठक तक नहीं कर पाया। जब न योजना बनी, न कार्यक्रम हुए, न समाज को कोई लाभ पहुँचा... तो अंततः सितंबर 2024 को सभी बोर्ड बिना किसी शोर-शराबे के भंग कर दिए गए।
लेकिन अब प्रश्न यह है कि बोर्ड बने ही क्यों थे... और भंग क्यों किए गए...?
बोर्ड निष्क्रिय, लेकिन अध्यक्ष सक्रिय सुविधाओं के साथ...
जिन बोर्डों को समाज upliftment का दायित्व सौंपा गया था, वे तो कागज़ों में भी सक्रिय नहीं रहे। पर दूसरी ओर, बोर्ड अध्यक्षों को वाहन, मानदेय, गृहभाड़ा जैसी समस्त सुविधाएं मिलती रहीं।
यह विडंबना ही है कि समाज को लाभ देने वाला ढाँचा निष्क्रिय पड़ा रहा, पर अध्यक्षों की सुविधाएँ जारी रहीं... समाज को शून्य... कुर्सीधारकों को पूरा लाभ...
8.34 करोड़ रुपये बजट में थे, खर्च एक धेला भी नहीं...
विधानसभा में सरदारपुर विधायक प्रताप ग्रेवाल द्वारा पूछे गए प्रश्न पर मंत्री गौतम टेटवाल ने स्पष्ट किया कि समाज बोर्डों के लिए 8.34 करोड़ रुपये का प्रावधान था, लेकिन दो वर्षों तक इस राशि को छुआ तक नहीं गया। जब खर्च होना ही नहीं था, तो बजट का ढोल क्यों पीटा गया...? समाजों को लाभ पहुँचना था, पर योजना के बीज ही नहीं बोए गए... समाज की राह में उम्मीदें ही उगाई गईं और फिर धूल में छोड़ दी गईं।
नियुक्तियां भी राजनीति के रंग में रंगी...
प्रत्येक बोर्ड में 4 सदस्य होने चाहिए थे, पर अधिकांश में सिर्फ एक-एक सदस्य नियुक्त किए गए। बाद में नवंबर 2024 से लेकर अगस्त 2025 के बीच नियुक्तियाँ निरस्त होती रहीं। क्या यह समाज कल्याण की नीति थी या राजनीतिक समीकरणों का नाजुक गणित...?
यह बात और दिलचस्प है कि चुनावों के पहले किए गए नामांकन को विधायकाें ने “धोखाधड़ी” तक कहा। भाजपा के कुछ पदाधिकारी भी यह कहने से नहीं चूके कि ये बोर्ड समाजों के लिए नहीं, बल्कि कुछ लोगों की ‘व्यक्तिगत सुविधा’ के लिए बनाए गए थे।
सबसे असल प्रश्न क्या है...?
प्रश्न यह नहीं कि बोर्ड क्यों भंग किए गए.. मन में उठते प्रश्न ताे यह है कि बनाए क्यों गए थे...? क्या समाजों के नाम पर राजनीतिक उपकार बांटने का यह नया तरीका था...? या समाज कल्याण के नाम पर सत्ता संरचना का प्रयोग...?
यदि सरकार को सच में समाजों के विकास की चिंता होती, तो दो साल तक यह निश्चलता, यह मौन, यह निष्क्रियता क्यों रही...? समाज इंतजार में रहा... सरकार विचार में... और बोर्ड औपचारिकता के बोझ तले ही दम तोड़ गए।
यह पूरा प्रकरण हमें बताता है कि समाज कल्याण के नाम पर बनने वाले बोर्ड कई बार समाज से ज्यादा सत्ता की जरूरतें पूरी करते है... दो साल तक न कोई योजना बनी, न बैठक हुई, न रुपया लगा, न लाभ मिला... और अंत में ये बोर्ड उसी तरह गायब हो गए, जैसे कई बार चुनावी घोषणा पत्रों की पंक्तियाँ गायब हो जाती है...
समाज अब भी वहीं है, अपनी समस्याओं के साथ और बोर्डों के अवशेष फाइलों में शांत पड़े है...





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