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उधार की बैसाखियों पर चलती सरकार… विकास के दावों में छिपता कर्ज का पहाड़… कर्ज से बाेझ झेल रहा एमपी का हर इंसान...

8 दिसंबर 2025

मुद्दे की बात

✍️ ऋतिक विश्वकर्मा

 

मध्यप्रदेश का हाल इन दिनों कुछ ऐसा है मानो घर की दीवारें गिर रही हो और मालिक नए पर्दे लगाने की तैयारी में हो… ऊपर से नमी टपक रही है… नीचे से फर्श उखड़ चुका है… मगर सरकार कह रही है कि सब कुछ विकास के रास्ते पर है… और इस राह पर चलने के लिए उधार लेना भी जरूरी है… तभी तो मोहन सरकार के दो वर्ष पूरे होने से पहले ही कर्ज की गाड़ी इतनी तेज दौड़ी कि प्रदेश का कुल कर्ज चार लाख चौंसठ हजार करोड़ के पार जा पहुंचा…

 

सरकार की दलील बड़ी सीधी है… यह कर्ज विकास के लिए है… लेकिन जनता का सवाल भी उतना ही सीधा है… विकास आखिर दिखता क्यों नहीं… सड़कें कागजों में चौड़ी हो जाती हैं… गांवों में योजनाओं के बोर्ड लग जाते हैं… शहरों में घोषणाओं की धूल उड़ने लगती है… लेकिन जमीनी हकीकत वही की वही रहती है…

 

मोहन सरकार एक तरफ कहती है कि प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाना है… दूसरी तरफ बाजार से कर्ज लेकर आत्मनिर्भरता की परिभाषा ही बदल देती है… कभी तीन हजार करोड़… कभी पांच हजार दो सौ करोड़… और अब करीब अट्ठाईस सौ करोड़ के नए कर्ज की तैयारी… कर्ज का यह सिलसिला ऐसा लगता है जैसे सरकार को बाजार से प्रेम हो गया हो… और बाजार भी मुस्कुराकर हर बार नया कर्ज थमा देता हो…

 

लेकिन सवाल यह है कि इन कर्जों का हिसाब कौन देगा… किसके घर की रसोई पर इसका असर पड़ेगा… किसके भविष्य पर इसका बोझ आएगा… सरकारें तो चुनावी घोषणाओं की बैसाखियों पर चलकर आगे बढ़ जाती हैं… पर यह कर्ज… यह तो जनता की पीढ़ियों तक पीछा नहीं छोड़ता…

 

बजट में एक लाख आठ हजार करोड़ की उधारी का अनुमान भी जोड़ लें तो आने वाले वर्षों में प्रदेश की वित्तीय सेहत कैसी होगी… यह सोचना भी मुश्किल हो जाता है… राजकोष का चेहरा अब मुस्कुराता नहीं… बल्कि उधार के बोझ से झुका हुआ लगता है… मगर सरकार का चेहरा अभी भी चमक रहा है… क्योंकि उसके अनुसार सब कुछ विकास के लिए है…

 

प्रदेश की जनता पूछ रही है कि यदि सब कुछ विकास का ही हिस्सा है तो फिर स्वास्थ्य केंद्रों में दवाएं क्यों नहीं… स्कूलों में शिक्षक क्यों कम… किसानों को समय पर मूल्य क्यों नहीं… और शहरों में पेयजल संकट क्यों बढ़ रहा है… सरकार इन सवालों को विकास की धूल झाड़कर किनारे कर देती है… और नए कर्ज के लिए फिर आवेदन भर देती है…

 

मोहन सरकार के दो वर्षों में कर्ज की यह रफ्तार बताती है कि प्रदेश की अर्थव्यवस्था अब एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां आगे का रास्ता धुंधला है… पीछे लौटने का रास्ता कठिन है… और रुकने का अर्थ है वित्तीय संकट…

 

जनता चाहती है कि सरकार खुलकर बताए कि इस कर्ज का वास्तविक लाभ क्या है… कब मिलेगा… और कैसे मिलेगा… क्योंकि कर्ज लेना आसान है… पर कर्ज चुकाना… वह हमेशा जनता का काम होता है…

 

प्रदेश चाह रहा है विकास का रास्ता… पर सरकार उसे कर्ज का नक्शा थमा रही है… और कह रही है… चलो आगे बढ़ो… जबकि जनता पूछ रही है… आगे कैसी राह है… मंजिल कहां है… और यह कर्ज का बोझ आखिर कब कम होगा…

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